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आखिर क्या कारण है कि अंतिम समय में मोदी पीछे हट गए आरसीईपी से ?

आरसीईपी के लिए अपनी रजामंदी न दे कर प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे विश्व को अचंभित कर दिया | सभी का चौकना स्वाभाविक था क्योंकि इस मुद्दे पर पिछले 5 साल से बहुपक्षीय बातचीत चल रही थी, कई दौर की बैठक हो चुकी थी और 16 में से 5 चैप्टर पर तो बातचीत पूरी भी हो चुकी थी। ज़्यादातर मामलों पर भारत ने रज़ामंदी दे दी थी और ऐसा लगने लगा था कि भारत इसमें शामिल हो जाएगा ।

आरसीईपी एक क्षेत्रीय व्यापार संगठन है, एक तरह का मुक्त व्यापार क्षेत्र है, जिसके सदस्य देश एक दूसरे के यहाँ अपने उत्पाद बग़ैर किसी सीमा शुल्क या अपेक्षाकृत कम सीमा शुल्क के बेच सकते हैं। इसमें भारत छोड़ 15 देश होंगे। यह मूल रूप से आसियान यानी एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशन्स समूह के साथ दूसरे 5 देशों का गठबंधन है। आसियान के सदस्य देश हैं-ब्रूनेई, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीफीन्स, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम। इसमें 5 देश जुड़ने वाले हैं-चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैड। भारत ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया है।

यदि भारत जुड़ गया होता तो यह दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र होता। साल 2017 के एक अध्ययन के अनुसार, आरसीईपी में कुल 3.4 अरब लोग हैं और उनकी अर्थव्यवस्थाओं का कुल नेटवर्थ 49.5 खरब डॉलर था। यह दुनिया की कुल जीडीपी का 39 प्रतिशत था।

प्रधानमंत्री मोदी इस फैसले के न करने के पीछे कई कारण है भारत सरकार ने पिछले साल दिसंबर में आरसईपी के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए तीन सलाहकार नियुक्त किए थे। इन तीनों सलाहकारों के साथ उद्योग और व्यापार जगत के प्रतिनिधियों की एक बैठक 26 दिसंबर को लखनऊ में हुई थी। समझा जाता है कि इस बैठक में इन लोगों ने व्यापार, सेवा और निवेश, इन तीनों ही मामलों में घनघोर आपत्ति जताई थी और ज़ोर देकर कहा था कि इससे भारत को नुक़सान होगा।

यदि भारत आरसीईपी में शामिल हो गया तो अगले 20 साल तक लगभग 80 प्रतिशत उत्पादों के मामले में यह पूरी तरह मुक्त क्षेत्र हो जाएगा, यानी, कोई कर नहीं लगेगा। कुछ उत्पादों पर ही भारत सीमा शुल्क लगा सकेगा।

यही वह बिन्दु है, जिस पर भारत सरकार को गंभीरता से विचार करना पड़ा और अपने पैर पीछे खींचने पड़े।